Monday, June 13, 2011

साक्षात्कार: स्त्री विमर्श और सामाजिक सरोकार

{चर्चित लेखिका संतोष श्रीवास्तव से कुमारेन्द्र सिंह सेंगर(लेखक, संपादक - स्पंदन त्रैमासिक) की स्त्री विमर्श के मुद्दों पर बातचीत}
संतोष जी ई स्त्री विमर्श पर एक पुस्तक "सामयिक प्रकाशन” से अभी-अभी प्रकाशित हुई है, "मुझे जन्म दो मां"। पिछले दस वर्षों से समरलोक पत्रिका में ’अंगना’ नामक स्तम्भ निकल रहा है जो स्त्री विमर्श पर आधारित रहता है। यह स्तम्भ बहुत अधिक लोकप्रिय रहा है। यह साक्षात्कार भी मैंने इसी विषय को आधार बनाकर लिया है।
प्र. संतोष जी, आज मैं आपसे केवल स्त्री विमर्श पर ही चर्चा करूंगा क्योंकि अब यह विमर्श गहराता जा रहा है जबकि इस तर्क से मैं जहां तक पाता हूं, कोई अंतर नहीं आया है। स्त्री या तो वहीं खड़ी है जहां वह पहले थी या उसने अपनी राह खुद बनाई है। आपने किस बात से प्रेरित होकर ’अंगना’ की शुरूआत करी और इतनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी?
. मेरा परिवार माता-पिता, भाई-बहन प्रगतिशील विचारों के थे। समाज में जब भी कुछ ऐसा घटित होता जो औरत के खिलाफ़ होता तो उसकी चर्चा कई-कई दिनों तक हमारे रात्रि भोजन के दौरान होती रहती। उन चर्चाओं में वक्त ने मेरे अनुभव भी जोड़ दिये। बहुत कुछ मुझ पर गुजरा, काफ़ी कुछ समाज से उठाया.... ऐसा थर्रा देने वाला सच जिसे वर्षों पहले मैंने जाना ही नहीं था.... आज सोचती हूं तो लगता है जैसे जैसे स्त्री की समस्याएं सामने आती हैं वे और बढ़ती जाती हैं सुरसा के मुंह की तरह.... अब वे विश्वव्यापी हो गयी हैं और हमें सोचने पर मजबूर करती हैं।
प्र. स्त्री विमर्श शब्द विवाद का विषय रहा है। आपके विचार से साहित्य में, समाज में ऐसी कोई अवधारणा है भी या फिर यह स्त्री रचनाकारों के मन की कल्पनामात्र है?
. समाज में हर वो वस्तु या धारणा विवाद का विषय रहती है जिसमें मतैक्य नहीं होता। स्त्री विमर्श को लेकर पिछले कुछ सालों से साहित्य में जो हलचल मची हुई है उसने विचारकों को, साहित्यकारों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या सचमुच स्त्री को लेकर विमर्श जैसी किसी अवधारणा की जरूरत है?यह बहुत संवेदनशील बात है जो प्रतिपल-प्रतिक्षण समाज में दिखाई देती है। यह कोरी कल्पना नहीं है और न ही केवल स्त्री रचनाकारों तक ही सीमित है। रामायण, महाभारत में सीता, अहिल्या और द्रौपदी जैसी पुरुषों द्वारा प्रताड़ित नारियों का राम और कृष्ण ने चमत्कारी ढंग से उद्धार किया। स्त्री के प्रति उनका ऐसा दृष्टिकोण, उनकी मर्यादाओं की रक्षा समकालीन स्त्री विमर्श के लिये सोचने का मुद्दा है। बहुत पहले मार्क्स के समकालीन एंगेल्स ने कहा था कि ’उद्यमों में समूचे महिला समुदाय का प्रवेश महिला-मुक्ति की पहली बुनियाद है।’ समाज में ऐसा बहुत कुछ संभव हुआ है और बहुत कुछ होने जा रहा है।
प्र. साहित्य में स्त्री विमर्श का उद्देश्य क्या रहा है? क्या इससे समाज में स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में सार्थक, सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुए हैं या फिर देह की आज़ादी, परिवार से आज़ादी ही स्त्री विमर्श का मूल उद्देश्य रहे हैं?
. साहित्य में स्त्री विमर्श का उद्देश्य तो अभी तक मैं समझ नहीं पायी हूं। अगर स्त्री विमर्श के तर्कों से ही महिला सशक्त हो जाती तो अब तक पूरा समाज ही बदल जाता। स्त्री की दशा तो जस का तस ही है। आप पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहो लेख, करते रहो नारेबाजी पर इस सबसे सदियों से जड़ जमाए स्थितियां तो नहीं बदल जाती। नारी मुक्ति के कानून बस कागज़ों पर ही बनते हैं। स्त्री आज भी घरेलू गुलामी की सीमा तक पार नहीं कर पायी है। घर के तमाम काम और जिम्मेदारियां बड़ी सफाई से उसकी ही गांठ में बांध दी गयी हैं और वह इन कामों को करती घरेलू चाकरी में खुद को स्वाहा किये जा रही है। देह की आज़ादी से औरत क्या हासिल कर लेगी? परिवार की आज़ादी से उसे कौन सा सुकून मिल जाएगा? इन दोनों प्रकार की आज़ादी में टूटेगी स्त्री ही। देह की अपनी अहमियत है और परिवार की अपनी। दोनो अपनी-अपनी जगह बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। समाज का ढांचा स्त्री-पुरुष के संग साथ से ही खड़ा होता है। समाज से देश विकसित होता है। आज चूंकि भारत आर्थिक पिछड़ेपन की त्रासदी से जुज़र रहा है ऐसी हालत में स्त्री पुरुष दोनों को अपनी-अपनी सोच खंगालनी होगी। निज से ऊपर उठ कर सोचना होगा। असली सशक्तिकरण वही है।
प्र. महिला द्वारा महिला का शोषण जो समाज में व्यापक रूप में फैला हुआ है स्त्री विमर्श के नाम पर एक शिक्षित नारी भी इसका विरोध क्यों नहीं करती? कहीं ऐसा तो नहीं कि स्त्री विमर्श की अवधारणा पुरुष विरोध पर ही कायम है??
. जहां तक स्त्री विमर्श की अवधारणा पुरुष विरोध पर कायम है, इस बात को मैं एक संतुलित वक्तव्य की संग्या नहीं दूंगी। अगर स्त्री का एक वर्ग ऐसा है जो पुरुष विरोध को ही अपना लक्ष्य मानता है तो एक वर्ग ऐसा भी है जिसने पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने में ही सार्थकता पायी है। पुरुष को भी स्त्री को अपने साथ बराबरी से चलने को ’विरोध’ नहीं कहना चाहिये... आखिर वो क्यों चाहता है कि स्त्री उसके कदमों के पीछे छूट गए निशानों पर ही चले? महिला द्वारा महिला का शोषण ठीक वैसा ही है जैसे एक शक्तिशाली पुरुष द्वारा कमज़ोर पुरुष का शोषण। इसे स्त्री या पुरुष में बांटना मूलभूत भूल है। शोषण ताकत के साथ निहित है। यदि बहू ताकतवर है(यहां ताकत से मतलब शारीरिक ताकत नहीं बल्कि धन, पद और रुतबे की ताकत है) तो सास-ससुर को घर से निकाल देती है। कितने ही ऐसे पुरुष हैं जो पत्नी पीड़ित हैं। हमारी सोच का नज़रिया सिर्फ़ महिला तक ही सीमित नहीं होना चाहिये। ये सोचना गलत है कि शिक्षित नारी ऐसे शोषण का विरोध नहीं करती। यहा मात्र भ्रान्ति है। कई ऐसे उदाहरण हैं जहां सास के द्वारा बहू को प्रताड़ित किये जाने पर बेटी ने अपनी मां का विरोध किया है। अगर हम वैसे उदाहरणों को देखते हैं तो ऐसे उदाहरणों को क्यों नहीं सामने लाते? हम खुद ही निगेटिव उदाहरणों को केन्द्र में लाकर पाजिटिव उदाहरणों को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं। जो इकतरफा माना गया विचार कहलाएगा।
प्र. साहित्य में स्त्री पुरुष दोनो का ही हस्तक्षेप है। स्त्री को केन्द्र में रख कर दोनो ने ही अपनी कलम चलाई है। स्त्री विमर्श और सामाजिम सरोकारों के संदर्भ में किसके लेखन को आप प्रभावी और संवेदनशील स्वीकारती हैं?
.यह कहना बड़ा कठिन है क्योंकि न तो लेख की प्रत्येक रचना अच्छी होती है और न ही उस पर वैसी कोई धारणा बनाई जा सकती है। कभी-कभी लेखक या लेखिका ऐसी प्रभावी रचना लिख डालते हैं जो सालोंसाल मन को मथती रहती है। स्त्री को केन्द्र में रखकर लिखी ऊषा प्रियम्वदा की "रुकोगी नहीं राधिका", नासिरा शर्मा की "शाल्मली", मृदुला गर्ग की "कठगुलाब", इन्द्र बसावड़ा की "शोभा", "घर की राह" किसी क्रान्ति से कम नहीं हैं। इन उपन्यासों ने गहरे छुआ है। स्त्री विमर्श और सामाजिक सरोकारों के संदर्भ में लेखक और लेखिकाओं के द्वारा काफ़ी कुछ लिखा जा रहा है। कोई प्रभावी होता है कोई नहीं। असल में स्त्री की तमाम घरेलू दुविधाओं से लेकर जी-२० सम्मेलन तक का जो पूरा परिदृश्य है उसी के बीच उसके जीवन की समस्याओं के साथ भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद और राजनैतिक पहलुओं को भी जोड़ कर देखना चाहिये।
प्र. ऐसा कहा जाता है कि शिक्षा स्त्री सशक्तिकरण का प्रमुख सोपान है फिर भी ज्यादातर स्त्रियां परम्परागत स्त्री छवि से बाहर नहीं आ सकी हैं। शिक्षित स्त्री काभी शारीरिक, मानसिक शोषण(स्त्री व पुरुष दोनो के द्वारा) हो रहा है, इसके मूल में क्या अंतर्निहित है?
. यह बहुत कड़वी सच्चाई है कि पढ़ी-लिखी स्त्री का भी शारीरिक मानसिक शोषण हो रहा है। जमाना तेजी से बदला है। बाज़ारवाद ने जिस ढंग से जीवन के हर क्षेत्र में पांव पसारे हैं वह शोचनीय है। उसने एक चकाचौंध भरी दुनिया का निर्माण करा है। जिसमें वे कुछ भी करने को तैयार हैं। यह काम यदि स्त्री के द्वारा होता है जिसमें पुरुष शोषक है और स्त्री शोषित है तो उस पर सबकी नजरें उठ जाती हैं लेकिन यदि पुरुष शोषक भी है और शोषित भी तो उस पर तवज्जो नहीं दी जाती। कई बार स्त्री को परिस्थितिवश शोषण के लिये झुकना पड़ता है। पति की मृत्यु के बाद या पिता की मृत्यु के बाद परिवार की गाड़ी खींचने के लिये.... तलाक के बाद या पिता की मृत्यु या तलाकशुदा माता के लिये वह मजबूर हो जाती है।एक बड़ी जिम्मेदारी ढोने में वह खुद को खत्म कर लेती है।
ज्यादातर शिक्षित स्त्रियां परम्परागत स्त्री छवि से बाहर नहीं आ सकी हैं। शिक्षा ने उन्हें समाज का सामना करने का हौसला तो दिया है लेकिन उनकी मानसिकता नहीं बदली है। आज भी उनमें यह भय कुंडली मारे बैठा है कि यदि पति जीवित न रहा, यदि पति ने तलाक दे दिया, यदि वे कुंवारी ही मां बन गयी तो वे क्या करेंगी? समाज उन्हें जीने देगा?? शिक्षा ने स्त्री को तो सशक्त बनाया पर समाज नहीं बदला। ऐसे में वे कब तक खुद को बदलती टिक पाएंगी? धर्म, पुराणों और ग्रन्थों ने भी औरत की नैतिकता, शुचिता को तमाम उलझनों के मकड़जाल में फंसा दिया है। नतीजा, पूरे समाज की मानसिकता रूढ़ियों में जकड़ गयी है और स्त्री ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी खो दी, और तो और महिला मुक्ति का ढिंढोरा पीटती कई स्त्रियों की स्त्रियों के द्वारा चलायी जा रही संस्थाएं भी बाकायदा आधार स्तंभ बन कर इन रूढियों को खत्म न होने देने के प्रयास में तत्पर हैं।
प्र. समाज में स्त्रियों को विधायिका एवं अन्य दूसरे क्षेत्रों में या तो आरक्षण देने की चर्चा है या फिर आरक्षण दिया जा चुका है। आप इस बारे में क्या कहेंगी कि समाज में स्त्रियों की बदलती स्थिति से साहित्य प्रभावित हुआ है अथवा साहित्य ने समाज में महिलाओं की स्थिति को प्रभावित किया है?
. जब आरक्षण का मुद्दा नहीं उठा था तब भी स्त्री विधायिकाएं थी और आज जब उठा है तब भी विधायिकाएं हैं। उनकी संख्या में कमी या बढोत्तरी नहीं हुई है। स्त्रियों के लिये राजनीति में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण उठाने का मुद्दा अभी तक सुनियोजित तरीके से स्थगित किया जाता रहा है और इसके पीछे भी राजनीति ही है। जहां तक साहित्य के प्रभावित होने का प्रश्न है तो देश भर की साहित्यिक पत्रिकाएं स्त्री मुद्दों पर बहस, चर्चाएं आयोजित करती हैं। स्त्री संदर्भ की कहानी, कविता, आलेख छापती हैं, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेषांक निकालती हैं और आधी दुनिया को बाकायदा नियमित स्तंभ में जगह देती हैं पर इससे कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं होती है। कितना कुछ छप रहा है स्त्री विमर्श पर लेकिन फिर भी लगता है बात जहां की तहां खड़ी है। भूमंडलीकरण के इस युग में जड़ स्थितियों को बदलने में बहुत वक्त लगेगा।
साहित्य ने समाज में महिलाओं की स्थिति को कहां तक प्रभावित किया है यह बैठकर गहराई से सोचने का विषय है। साहित्य समाज का दर्पण है। वह एक ऐसा मंच है जो समाज को वस्तुस्थिति से परिचित कराता है। साहित्य ने इस विषय पर तह तक जाने की कोशिश तो की है।
प्र. साहित्य में नारी की जैसी छवि चित्रित की जा रही है उससे समाज में नारी के दो स्वरूपों का आधार निर्मित हुआ है। एक में सीता सावित्री जैसी महिलाओं को रखा जाता है और दूसरे में नारी छवि को "होमब्रेकर" के रूप में देखा जाता है। ऐसा क्यों है और सामाजिक सरोकारों के परिप्रेक्ष्य में आपको औरत का कौन सा स्वरूप ज्यादा सार्थक लगता है?
. सीत्रा सावित्री जैसी छवि तो साहित्य की संरचनाकाल से ही छित्रित होती रही है। आज उस छवि को पाठक नकार भी रहे हैं। उन्हें हारी हुई शोषिता, गलत के आगे समर्पित, रोती गिड़गिड़ाती स्त्री की कहानियां पसंद नहीं आतीं। सीत्रा सावित्री का विलोम शब्द "होमब्रेकर" नहीं है। कहीं भी स्त्री को सशक्त करने के लिये परिवार को तोड़ने की बात नहीं कही गयी है बल्कि परिवार तो जीवन की प्रथम और अनिवार्य इकाई है। फिर भी परिवार टूट रहे हैं तो इसके पीछे महिला का सशक्तिकरण नहीं है वल्कि जिन्दगी जीने का पूरा ढंचा बदल जाने की सोच है। बाज़ारवाद, भूमंडलीकरण स्त्री को मोहरा बनाकर किए गए उत्पादन, विश्व सौंदर्य प्रतियोगिता, माडलिंग, फ़िल्म, टेलीविज़न इन सबके लिये थोड़े-थोड़े जिम्मेदार हैं....क्योंकि इन क्षेत्रों में पारिवारिक नहीं बल्कि सभी जिम्मेदारियों से मुक्त स्त्री को ही प्राथमिकता दी जाती है। कुछ क्षेत्रों में से शादीशुदा शब्द ही शब्दकोष से निकाल दिया गया है। जहां तक सामाजिक सरोकारों के परिप्रेक्ष्य में औरत के पसंदीदा स्वरूप की बात है तो निश्चय ही खुले विचारों वाली, पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा एक पारिवारिक महिला का स्वरूप ही सार्थक है जिसकी सोच पुरुष विरोधी नहीं बल्कि पुरुष के कदमों से कदम मिला कर चलने की है।
प्र. आज की महिला में आत्मविश्वास पनपा है, वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र भी हुई है। स्त्री विमर्श के नाम पर इस प्रकार की पैरोकारी की जाती रही है कि पति-पत्नी के आपसी अथवा पारिवारिक विभेद होने की दशा में आर्थिक रूप से सक्षम स्त्री को अलग हो जाना चाहिये, सम्बन्ध विच्छेद कर लेने चाहिये। क्या इस तरह के विचार स्त्री-सशक्तिकरण की सफलता है अथवा सामाजिक सरोकारों/पारिवारिक ढांचे के विखण्डन के सूत्रधार हैं?
. निश्चय ही इस तरह के विचार दूषित विचार कहे जाएंगे। ऐसी मानसिकता चंद विद्वानों को स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में हाशिए पर ढकेलकर बढ़ना होगा। आर्थिक रूप से सक्षम स्त्री तो अपने परिवार को उच्च स्तर का सुख-सुविधाओं से भरा जीवन देने में खुद को धन्य मानती है। आर्थिक सक्षमता का मतलब यह तो नहीं कि वह परिवार को दरकिनार कर उद्दंड हो जाए और समझ ले कि अब वह स्वच्छंद है। जो जी में आए कर सकती है। स्वतंत्रता के नाम पर उच्छृंखलता को बढ़ावा देना घुमा फिरा कर स्त्री को वहीं का वहीं ला कर खड़ा कर देना है जहां से उसकी मुक्ति का मार्ग खुला था और सामाजिक नियम पुरुषों के लिये भी हैं, स्त्रियों के लिये भी। इन्हें जो भी तोड़ेगा वह दंड का भागीदार है। ऐसे विचार कभी भी स्त्री को सशक्त नहीं कर सकते।
प्र. साहित्य में स्त्री विमर्श के नाम पर नारी की यौन स्वच्छंद छवि, ’होमब्रेकर’ की छवि, उन्मुक्त छवि को अधिक एक्सपोज़र प्रदान किया गया। आपको नहीं लगता कि इससे सामाजिक सरोकारों और स्वयं नारी का स्वरूप प्रभावित हुआ है?
. चंद साहित्यिक पत्रिकाएं यदि स्त्री विमर्श के नाम पर नारी की यौन स्वच्छंद छवि, होमब्रेकर उन्मुक्त छवि को महिला सशक्तिकरण मानती हैं और यही सब छापती हैं तो ये उनकी बीमार मानसिकता है। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती देहवादी साजिशों से सावधान रहने की है। स्त्री विमर्श का अर्थ मात्र स्त्री शारीर और प्रेम के त्रिकोणों के चमत्कारी बयानों से न होकर आज के बाहरी और आन्तरिक दबावों को झेलती स्त्री का मन, उसकी सोच और उसके सम्पूर्ण अंतरंग और बहिरंग से है। मैं नहीं मानती कि इस तरह के एक्सपोज़र का असर सामाजिक सरोकारों पर पड़ा है या नारी के स्वरूप पर। जिन्हें परिवार तोड़ना है और अलग रहकर अपने लक्ष्य को पाना है वे तो पहले से ही ऐसा कर रही हैं। यही बात यौन स्वच्छंदता पर भी लागू होती है पर इससे पूरे समाज को इसी रंग में रंगा हुआ नहीं मान लेना जाए यह सही नहीं है। मर्यादित नारियां आज भी ८० प्रतिशत के आंकड़े पर हैं।
प्र. एक सामान्य पाठक की दृष्टि से स्त्री विमर्श के संदर्भ में आपको किस महिला उपन्यासकार ने सर्वाधिक प्रभावित किया है और किस महिला उपन्यासकार ने सामाजिक सरोकारों का सकारात्मक पोषण किया है?
. एक सामान्य पाठक की दृष्टि से स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में आजकल लेखिकाओं ने स्त्रियों की छवि को जरा अलग हटकर लिखा कि उसे स्त्री विमर्श का नाम दे दिया जाता है। पंजाबी लेखिकाओं में अमृता प्रीतम, अजीत कौर चुनौतीपूर्ण लेखन करती थीं। बहुत प्रभावित हूं मैं इनसे। पाकिस्तानी लेखिकाएं भी प्रभावित करती हैं। तहमीना दुर्रानी के "कुफ़्र" ने मुझे झंझोड़ा है और "मेरे आक़ा" ने मेरे विचारों को खलबला दिया है। क्या पुरुष की नजर में यही है औरत के मायने? कालेज के जमाने में मन्नू भंडारी की "आपका बंटी" बड़ी असरदार लगी थी। इस्मत चुग़ताई की "अगले जनम मोहे बिटिया न कीजे" और कृष्णा सोबती की "मित्रो मरजानी" में सामाजिक सरोकारों का सकारात्मक पहलू है।
प्र. साहित्य में चर्चित स्त्री विमर्श के द्वारा आप समाज में महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन देखती हैं? यह परिवर्तन किस वर्ग की महिलाओं में और किस प्रकार से हुआ है??
. साहित्य में चर्चित स्त्री विमर्श के द्वारा निम्नवर्ग की श्रमिक औरतों के बारे में काफी लिखा गया है और श्रमिक वर्ग को जब उनके कानूनी अधिकार समझाए गये तो उन्होंने उससे लाभ भी उठाया। मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की स्त्रियां श्रमिक वर्ग की स्त्रियों से भिन्न लेकिन समस्याओं के अलग दौर से गुजरती हैं। आर्थिक रूप से सम्पन्न होना उन समस्याओं को सुलझाने में कतई मदद नहीं करता जो सदियों से पुरुषवादी मानसिकता और पुरुषों के सामंती वर्चस्व ने उन पर थोपे हैं। बल्कि कई बार भौतिक सुविधाओं ने स्त्री के लिये अलग किस्म के पिंजड़ों में उन्हें जकड़ा है। स्त्री विमर्श के द्वारा न तो ये समस्याएं सुलझी हैं न ही इसमें कोई अंतर आया है।
[ यह साक्षात्कार कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने अपने शोध प्रबन्ध(पी.एच.डी.) में लिया है ]

2 comments:

Anonymous said...

स्त्री विमर्श पर एक बहुत ही सुन्दर और महत्वपूर्ण साक्षात्कार...कुमारेन्द्र जी बहुत-बहुत बधाई!!!

डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

अदि सुन्दरता से आपने इसे यहाँ लगाया है...आभार.
संतोष जी जैसी साहित्यकार के विचारों का मिलना किसी भी विषय को सार्थकता देता है.
एक भूल की तरफ आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहेंगे....ये साक्षात्कार हमने अपने शोध कार्य के लिए तो लिया है किन्तु पी-एच० डी० हेतु नहीं. कृपया इसे सही करियेगा. ये हमने स्त्री विमर्श से सम्बंधित एक लघु शोध परियोजना के लिए लिया था.
आशा है भूल-सुधार हो जायेगा.

 

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