Monday, June 27, 2011

हेमंत फाउंडेशन एवं उर्दू मरक़ज़ के संयुक्त तत्त्वावधान में "आशिकाने हिंदी-उर्दू मंच" का प्रथम कार्यक्रम

हेमंत फाउंडेशन द्वारा स्थापित हिन्दी उर्दू मंच का उद्धघाटन
हेमंत फाउंडेशन तथा उर्दू मरकज़ द्वारा स्थापित हिन्दी उर्दू मंच का उद्घघाटन समारोह २५ जून संध्या ६ बजे उर्दू मरकज़ सभागार मे सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम का आरंभ अतिथियों का पुष्पगुच्छ सहित स्वागत सम्मान से हुआ। मंच की अध्यक्ष चर्चित लेखिका संतोष श्रीवास्तव ने इन खूबसूरत पंक्तियों से मंच के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला- 'हिन्दी की एक बहन कि जो उर्दू ज़बान है/ वो इफ्तखारे कौम है भारत की शान है/ हिन्दी ने एकता के गुंचे खिलाए है/ उर्दू बहारे गुलशने हिन्दुस्तान है। उन्होंने कहा कि यह मंच दोनों भाषाओं की साहित्यिक एकता के लिये स्थापित किया गया है। आज का दिन साहित्य जगत की तारीख में दर्ज होगा। हम समय समय पर मुशायरा कवि सम्मेलन, सेमिनार, वर्कशाप आयोजित करेंगे साथ ही दोनों भाषाओं के साहित्यकारों की पुस्तकों का हिन्दी उर्दू में अनुवाद भी करायेंगे ताकि हम एक दूसरे के करीब आ सकें। संतोष जी ने अपनी गज़ल 'जिस्म से जान तक तू ही समाया लगता है' सुनाकर श्रोताओं का मन मुग्ध कर लिया।
कार्यक्रम के अध्यक्ष डा. अब्दुल सत्तार दलवी ने कहा कि हेमंत फाउंडेशन तथा उर्दू मरकज़ ने हिन्दी उर्दू मंच की स्थापना कर प्रशंसनीय कार्य किया है। हिन्दुस्तान के माहौल के लिए यह ज़रूरी था। इससे दोनों ज़बानों के साहित्यकारों की हौसला अफ़जाई होगी, उनके ज़ज्बे की कद्र होगी।
उर्दू मरकज़ के अध्यक्ष जुबैर आज़मी ने कहा कि एक जमाना था कि जब छोटी-छोटी महफिलें नागपाड़ा-मदनपुरा इलाके में जुटा करतीं थीं जिसमें हिन्दी उर्दू की नामी हस्तियां कैफ़ी आज़मी, मज़रुह सुल्तानपुरी, कमलेश्वर, नारायण सुर्वे आदि शिरकत करते थे। आज उसी रिवायत को हम आगे बढ़ा रहे हैं और दूर तलक जाने का ज़ज्बा रखते हैं।
इस काव्य गज़ल संध्या में उर्दू के शायर रियाज़ मुन्सिफ़, वकार आज़मी, रेखा रोशनी, शादाब सिद्दीकी, फारुक आशना, सैयद रियाज़, जमील मुर्सापुरी, सोहेल अख्तर, जुबैर आज़मी,रफ़ीक जाफ़र, अब्दुल अहद साज़, रायपुर से विशेष तौर पर इसी कार्यक्रम के लिये पधारीं छत्तीसगढ़ की उर्दू साहित्य अकादमी की सदर उज़्मा शेख ने अपनी गज़लें पढ़ीं वहीं मंच की कार्याध्यक्ष तथा शायरा सुमीता केशवा ने 'हद में रहने की बात करते हो' सुना कर वाह-वाही पाई। उर्दू के वरिष्ठ शायर दाऊद कश्मीरी ने रवीन्द्र नाथ टैगोर के शेर बांग्ला भाषा में सुनाये। हरि मृदुल, कैलाश सेंगर, आलोक भट्टाचार्य, शिल्पा सोनटक्के और अनीता रवि ने अपनी कविताओं से समा बांध दिया। कार्यक्रम का संचालन आलोक भट्टाचार्य तथा आभार जुबैर आज़मी ने किया। इस कार्यक्रम में शायरों-अदीबों के साथ ही उर्दू-हिंदी के अनेक भाषा प्रेमियों ने शिरकत करी जिनमें से श्रीमती नादिरा मोटलेकर, गज़ाला आज़ाद, मुनव्वर आज़ाद, उर्दू मरक़ज़ के सक्रिय भागीदार श्री फ़रीद खान, इश्तियाक खान, श्री वसीम, लंतरानी मीडिया हाउस के प्रबंध निदेशक डॉ.रूपेश श्रीवास्तव, उर्दू वेबसाइट लंतरानी डॉट कॉम की संपादिका श्रीमती मुनव्वर सुल्ताना आदि ने भी कार्यक्रम में उपस्थिति दर्शा कर कार्यक्रम को सफल व सुफल बनाया। कार्यक्रम के सदर श्री अब्दुस्सत्तार दलवी ने रविन्द्र नाथ टैगोर तथा फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से संबद्ध एक संयुक्त कार्यक्रम को मुंबई विश्वविद्यालय में कराने का भी विचार रखा जिस पर सभी ने सहर्ष एकस्वर में सहमति दी। कुल मिला कर इस दिशा में करे गये इस प्रकार के प्रथम कार्यक्रम के आगाज़ को देख कर उत्तम भविष्य का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। आयोजक गण बधाई के पात्र हैं। कार्यक्रम से संबद्ध झलकियों को टी.वी. पर ले जाने के लिये ई-टीवी उर्दू के जनाब मैनुद्दीन का भी सहयोग प्रशंसनीय है। इस कार्यक्रम की उर्दू में रिपोर्त www.lantrani.com पर भी नस्तालिक लिपि में प्रकाशित है।
कार्यक्रम की बयानी तस्वीरों की जुबानी

कार्यक्रम का प्रारंभ करते सूत्रधार वरिष्ठ कवि-पत्रकार श्री आलोक भट्टाचार्य जीकार्यक्रम के अध्यक्ष डॉ. श्री अब्दुस्सत्तार दलवी को पुष्पगुच्छ देते लंतरानी मीडिया हाउस के प्रबंध निदेशक डॉ.रूपेश श्रीवास्तव
बांए से दांए - उर्दू मरक़ज़ के निदेशक श्री ज़ुबैर आज़मी, डॉ.अब्दुस्सत्तार दलवी, वरिष्ठ कवि-शायर श्री अब्दुल अहद साज़, भाषाविदुषी-कवियत्री श्रीमती शिल्पा सोनटक्के
हेमंत फाउंडेशन की प्रबंध न्यासी वरिष्ठ कवियत्री-लेखिका-पत्रकार श्रीमती संतोष श्रीवास्तव को पुष्पगुच्छ देते हुए उर्दू वेबसाइट लंतरानी डॉट कॉम की संपादिका श्रीमती मुनव्वर सुल्ताना
श्री ज़ुबैर आज़मी को पुष्पगुच्छ देते हुए कवियत्री श्रीमती अनीता रवि
हेमंत फाउंडेशन की कार्याध्यक्ष श्रीमती सुमीता केशवा को पुष्पगुच्छ से सम्मानित करते हुए श्रीमती शिल्पा सोनटक्के


डॉ.श्री अब्दुस्सत्तार दलवी ने वरिष्ठ शायर श्री रफ़ी जाफ़र को पुष्पगुच्छ देकर सम्मानित करा
संबोधन करते हुए श्रीमती संतोष श्रीवास्तव

कवियत्री अनीता रवि ने पुष्पगुच्छ देकर वरिष्ठ साहित्यकार-कवि श्री दाउद काश्मीरी को सम्मानित करा
ई-टीवी उर्दू के कैमरामैन लगातार कार्यक्रम का छायांकन करते हुए


काव्यपाठ करते वरिष्ठ हिंदी कवि श्री हरि मृदुल

काव्यपाठ करते श्री रियाज़ मुंसिफ़
काव्यपाठ करते हुए भाषाविदुषी कवियत्री श्रीमती शिल्पा सोनटक्के और काव्यरस लेते श्री रफ़ी जाफ़र

बांए से दांए-फ़ारसी की विदुषी श्रीमती नादिरा मोटलेकर,श्रीमती मुनव्वर सुल्ताना, श्रीमती गज़ाला आज़ाद, श्री मुनव्वर आज़ाद एवं दिल्ली व देहरादून से पधारे अतिथिगण
काव्यपाठ करते हुए श्रीमती शादाब सिद्दीक़ी साथ में हेमंत फाउंडेशन की कार्याध्यक्ष श्रीमती सुमीता केशवा

काव्यपाठ करते हुए श्रीमती अनीता रवि
काव्यपाठ करते वरिष्ठ शायर श्री फ़ारुख आशना


पूरे तरन्नुम में काव्यपाठ करती श्रीमती सुमीता केशवा
श्रीमती संतोष श्रीवास्तव ने श्रीमती उज़मा शेख को पुष्पगुच्छ देकर सम्मानित करा
काव्यपाठ करते श्री वक़ार आज़मी



काव्यपाठ करते हुए श्रीमती रेखा किंगर "रोशनी"

काव्यपाठ करते वरिष्ठ कवि पत्रकार श्री कैलाश सेंगर
काव्यपाठ करते वरिष्ठ शायर श्री अब्दुल अहद साज़ जो कि हृदय की शल्यक्रिया होने के बाद पूर्ण स्वस्थ न होने के बावजूद भी साहित्यानुरागवश कार्यक्रम में पधारे



काव्यपाठ करते हुये श्री सैय्यद रियाज़
काव्यपाठ करते वरिष्ठ शायर श्री जमील मुर्सापुरी


संबोधित करते हुए बांग्ला के अशआर सुनाते श्री दाउद काश्मीरी

Wednesday, June 15, 2011

मैं खुद से सवाल करती हूं और............



[चर्चित लेखिका संतोष श्रीवास्तव से लेखिका,शायरा सुमीता केशवा की शब्द के लिए विशेष बातचीत]
अन्तरराष्ट्रीय स्तर के हिन्दी साहित्यकार हिन्दी साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनमें से एक हैं संतोष श्रीवास्तव। जो अपनी विशिष्ट भाषाशैली, संवेदनशीलता एवं सादगी के लिए जानी जाती हैं। 'बहके बसंत तुम', 'बहते ग्लेशियर, यहां सपने बिकते हैं, 'प्रेम संबंधों की कहानियां' [ कथा संग्रह ] मालवगढ़ की मालविका, 'दबे पांव प्यार',' टेम्स की सरगम' [उपन्यास] हवा में बंद मुठ्ठियां [सहलेखन उपन्यास] 'मुझे जन्म दो मां' [स्त्री विमर्श उपन्यास] नहीं अब और नहीं [संपादित संग्रह] नीले पानियों की शायराना हरारत [यात्रा संस्मरण] फागुन का मन [ललित निबंध संग्रह] आपकी प्रकाशित कृतियां हैं। हेमंत फाउंडेशन की प्रबंध न्यासी तथा जे.जे.टी. यूनिवर्सिटी में को-आर्डिनेटर के पद पर कार्यरत आपको हिन्दी साहित्य में किए गए योगदान के लिए कई पुरस्कार प्राप्त हुए हैं जिनमें प्रमुख हैं- कालिदास पुरस्कार, महाराष्ट्र साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य शिरोमणि पुरस्कार, प्रियदर्शनी अकादमी पुरस्कार, महाराष्ट्र दलित साहित्य अकादमी पुरस्कार, वसंत राव नाइक लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड, कथाबिंब पुरस्कार, कमलेश्वर स्मृति पुरस्कार,प्रियंका चेरिटेबल ट्रस्ट [लखनऊ]साहित्य सम्मान, आदि प्रमुख हैं। देश की विभिन्न साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में आप लगातार छप रही हैं। 'शब्द' के लिए जब मैं संतोष जी से बात करने उनके घर पहुंची तो उनकी सादगी और खुशमिज़ाजी देख कर दंग रह गई......उनके जीवन के हादसों को मैं कुरेदना नहीं चाहती थी किन्तु उन्होंने एक लौह महिला की तरह सामना करते हुए मुझे अपने पत्रकार रूप में ही स्वीकारना पसंद किया। प्रस्तुत है संतोष जी से की गई बातचीत के कुछ अंश-
सुमीता : संतोष जी, आपकी पहली कहानी सत्रह साल की उम्र में छपी। लेकिन आमतौर पर इस उम्र में लड़कियां कुछ और ही सपने देखती हैं। क्या आपने वो सपने नहीं देखे ?
संतोष : जी बिल्कुल, वह उम्र होती ही खतरनाक है। मेरी हम उम्र लड़कियां ईश्क के चर्चे करतीं....सिल्क, शिफ़ान,किमख्वाब, गरारे,शरारे में डूबी रहतीं, मेंहदी रचाती, फ़िल्मी गाने गुनगुनाती, दुल्हन बनने के ख्वाब देखतीं, तकियों के गिलाफ़ पर बेल बूटे काढ़ती थीं। मैं कभी अपने को इस सब में नहीं पाती। मेरे अंदर एक खौलता दरिया था। जिसका उबाल मुझे चैन न लेने देता....दिन में आंखों के सामने कोर्स की किताबें होतीं। रात दो-दो बजे तक कागज़ कलम थामें दुनिया जहान को टटोलने की कोशिश शब्दों के जरिये करती। इस जद्दोजहद में कब शब्द अपने गूढ़ अर्थों सहित मेरे दोस्त बन गये मुझे पता ही नहीं चला। मैंने इस दोस्ती के जरिये झूठी मान्यताओं, थोथी परंपराओं, अंधविश्वासों को ललकारा और किसी भी अवरोध की परवाह नहीं की। मैं इस सब के खिलाफ़ दृढ़ता से खड़ी तो हुई पर अपनी आवाज़ जन-जन तक पहुंचाने के लिए मुझे पत्रकार बनने की धुन सवार हो गई।
सुमीता : संतोष जी, अब मैं यह जानना चाहूंगी कि पत्रकारिता के लिए आप जबलपुर में होम सांइस कालेज में लगी अपनी लेक्चररशिप छोड़कर मुंबई आ गयीं...इतना कड़ा कदम आपने मात्र पत्रकारिता के लिए कैसे उठा लिया?
संतोष : सुमीता जी, पत्रकारिता तो करनी ही थी और मैं एक नई जमीन की तलाश में थी उन्हीं दिनों सुरेन्द्र प्रताप[एस.पी] कलकत्ता से मुम्बई धर्मयुग में बतौर आये । उन्होंने मेरे बड़े भाई विजय वर्मा को भी अपनी योग्यता के लिए उचित प्लेटफार्म मिलेगा ऐसी सलाह देकर मुम्बई बुला लिया। पर वे यह नहीं चाहते थे कि मैं अपनी लगी लगाई नौकरी छोड़कर मुम्बई आऊं। मुझ पर तो पत्रकारिता का नशा चढ़ा था। मैं तमाम अव्यवस्था के खिलाफ हल्ला बोलना चाहती थी। सो मैं मुम्बई आ गई। काम भी मुझे बहुत मिला। डेस्क वर्क मैं करना नहीं चाहती थी, फ्री लांस ही किया। नवभारत टाइम्स में मैं बदस्तूर लिखने लगी। आर.टी.वी.सी में कई कमर्शियल कार्यक्रम लिखे, जो रेडियो टी.वी पर प्रसारित होते थे। लिंटाज़ में कई ज़िंगल लिखे। धर्मयुग में 'अंतरंग' स्तंभ दो साल तक लिखा। नवभारत टाइम्स में 'मानुषी' स्तंभ तीन साल तक लिखा। संझा लोकस्वामी में दो वर्षों तक साहित्य का पन्ना संपादित करती रही। ललित पाहवा ने 'मेरी सहेली' में संपादक के पद का आफर दिया। पर उसका कलेवर मेरे मिज़ाज के खिलाफ़ था। सो इंकार कर दिया। 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' और 'वीर अर्जुन' अखबार की मैं मुम्बई ब्यूरो चीफ़ रही।
सुमीता :मेरा अगला सवाल मार्क्सवाद को लेकर है क्या आप मार्क्सवाद से सहमत हैं? अधिकतर लेखक मार्क्सवादी हैं या प्रगतिशील विचार धारा के इस पर आपकी राय जानना चाहूंगी।
संतोष : एक ही बात है ...कोई एक सिद्धांत को मान लो और चलो उस पर, ऐसा भी होता है पर मैं उनमें से नहीं । मैंने अपने विचारों पर किसी वाद को हावी नहीं होने दिया। मेरी अपनी सोच, समझ और अनुभव ही मेरे काम आए, आ रहे हैं। हालांकि मेरे बड़े भाई मार्क्सवादी थे । घर में मार्क्सवादी किताबें पढ़ -पढ़ कर मैंने जाना व्यक्ति क्या है,राष्ट्र क्या है और विश्व क्या है? गीता में तो बहुत पहले कह दिया गया है कि कर्म करो, फल की चिन्ता मत करो। लेकिन व्यक्ति फल की चिन्ता करना नहीं छोड़ता बल्कि इस बाज़ारवाद के युग में फल केन्द्र में आ गया है और यही वजह है कि तमाम राष्ट्र आतंकवाद को झेल रहे हैं। धर्म के नाम पर जेहाद, यह कहां की इंसानियत है?
सुमीता : आप किसी साहित्यिक खेमे या वाद से न जुड़कर लेखन के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाये हैं। यह कैसे संभव हुआ?
संतोष : सुमीता जी, मैं आपको बता चुकी हूं कि मैं किसी भी खेमे या वाद के झमेले से कोसो दूर हूं। मैं मानती हूं कि लेखन एक ऐसा सफ़र है जिसमें हमारी पिछली पीढ़ीयां और आने वाली पीढ़ीयां मेरी हमसफ़र । मैं तमाम वैग्यानिक दुरुपयोगों, भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद, छिछली राजनीति, इंटरनेट और साहित्य की चुनौतियों के सामने जिरह बख्तर बांध कर खड़ी हूं। मेरी लड़ाई उस व्यवस्था के खिलाफ़ है अंडरवर्ल्ड ,ड्रग लीडरों , माफ़िया, आतंकवादियों और नक्सलवाद को तो खत्म नहीं कर पायी लेकिन इस विराट समाज़ में उन मुट्ठी भर लोगों को जीवन शैली जरुर बेच रही है कि पिज़्ज़ा खाओ, बर्गर खाओ, ठंडा मतलब.....? पिओ और योगा क्लासेज़ ,लाफ़िंग क्लब ज्वाइन करो क्योंकि हम तुम्हारी पाचन शक्ति, तुम्हारी हंसी छीन रहे हैं।
सुमीता :देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आपके लेख,स्तंभ और कहानियां छ्पती रहती हैं और आप कालेज में को-आर्डिनेटर के पद पर भी कार्यरत हैं। लिखने के लिए इतना वक्त कैसे निकाल लेती हैं ?
संतोष : किसी भी काम के लिए वक्त तभी निकल सकता है जब उस काम के प्रति हमारा लगाव हो,रूझान हो। अब देखिए लोग घंटों बैठे टी.वी. देखते हैं, विंडो शापिंग करते हैं, यारबाज़ी करते हैं, शामें नाईटक्लबों, मयखानों में गुज़ारते हैं....नौकरी वे भी तो करते ही हैं न ।...इसी तरह मैं भी यूनिवर्सिटी से बचा समय लिखने-पढ़ने में गुज़ारती हूं । पत्रिका के विशेषांकों के लिए लेख, स्तंभ संपादक दबाव डालकर लिखवा लेते हैं। साहित्यिक आयोजनों में शिरकत करने का दबाव आयोजकों की ओर से होता है। यह दबाव चूंकि मेरी रूचि का होता है तो समय निकल ही आता है। इन दिनों मैं अपने देश विदेश के यात्रा संस्मरणों की पांडुलिपि तैयार कर रही हूं और 'पाब्लो नेरूदा' को पढ़ रही हूं जो मेरे लिए अदभुत अनुभव है।
सुमीता : आपने अब तक जो कुछ भी लिखा उसकी कितनी सामाजिक उपादेयता है, क्या आप अपने लेखन से संतुष्ट हैं ?
संतोष : जीवन में बेहद जरूरी है संतुष्टि। पर किसी भी कला में चाहे वह लेखन हो, चित्रकारी हो, गायन-वाद, नृत्य,अभिनय हो संतुष्टि खतरनाक है। कला में संतुष्टि जीवन को ठहरा जल बना देती है जिसकी नियति सड़ना है। मैं कभी भी अपने लेखन से संतुष्ट नहीं होती। सुमीता जी, आपको एक बात बता दूं, मैं अपनी रचना की सबसे बड़ी आलोचक, समीक्षक हूं। रचना लिख ली, छप गई और जब पढ़ी तो पाया कि कितने सुधार की आवश्यकता है इसमें.... जहां तक सामाजिक उपादेयता का सवाल है ,यह बात मेरे पाठक तय करते हैं। मेरी रचना पर कई पत्र छपते हैं। कई फोन, कई एस एम एस आते और कई ई-मेल आते हैं। रचना को सार्थक पाठक ही बनाते हैं।
सुमीता : अबतक आपके जितने भी उपन्यास आए हैं लगभग वे सभी प्रेम से सराबोर कर देने वाले रहे किन्तु आपकी हाल ही में प्रकाशित उपन्यास 'मुझे जन्म दो मां' अपने बोल्ड विषय को लेकर काफ़ी चर्चित रही उसमें आपके पत्रकार कौशल का विद्रोही तेवर देखने को मिला । इस पुस्तक को लिखने की प्रेरणा आपको कहां से मिली ?
संतोष : मैंने अबतक चार उपन्यास लिखे हैं । 'मालवगढ़ की मालविका' सती प्रथा के विरोध में एक सामंती परिवार की कथा है जिसका एक अंश 'मंगल पांडे' फ़िल्म में भी फिल्माया गया है। जब विधवा स्त्री को सती करने के लिए शमशान ले जाया जा रहा है और एक अंग्रेज़ घोड़े पर आकर उसे बचाता है। दूसरा उपन्यास 'हवा में बंद मुठ्ठियां' सहलेखन [प्रमिला वर्मा के साथ] क उपन्यास है इसमें भी एक आम मुस्लिम परिवार की जीवन के उतार चढ़ानों, फ़ैसलों की कथा है। प्रेम इसमें भी है पर त्याग भरा......जीवन की ज़रूरतें त्याग करवा डालती हैं। सम्पूर्ण रूप से प्रेम पर आधारित 'दबे पांव प्यार' और 'टेम्स की सरगम' उपन्यास हैं। 'टेम्स की सरगम' में प्रेम की अथाह गहराई है और दो देशों का अदभुत संगम है। मुझे खुद नहीं पता कि कैसे मैं प्रेम पर इतना व्यापक लिख गई। मैं महीनों उस नशे से उबर नहीं पाई थी। 'मुझे जन्म दो मां' स्त्री विमर्श पर आधारित लेखों का संग्रह है। मेहरून्निसा परवेज़ जब समरलोक [भोपाल] पत्रिका लांच कर रही थीं तब उन्होंने मुझे स्त्री विमर्श का कालम 'अंगना' लिखने का आमंत्रण दिया। पिछले बारह वर्षों से मेरा यह कालम बदस्तूर जारी है और बेहद चर्चित व प्रशंसित भी हुआ। उन्हीं लेखों को मैंने इस संग्रह में विस्तार दिया। इन लेखों में औरतों को लेकर मैंने कई सवाल उठाए हैं। जो बचपन से मेरे जेहन में घर किए हैं। क्यों परिवार की मान मर्यादा शिष्टता की सीमा रेखा लड़कियों को ही दिखाई जाती है, लड़कों को नहीं। क्यों पिता, भाई, पति और बेटे की सुरक्षा के घेरे में वह ज़िंदगी गुज़ारे? क्यों सारे व्रत, उपवास, नियम-धरम औरतों के ज़िम्मे? क्यों पति और पुत्र के कल्याण के लिए ही सारे व्रत,पूजा, अनुष्ठान? क्यों नहीं औरतों के लिए यह सब? यह करो, यह मत करो, ऐसो उठो, ऐसे बैठो की संहिताएं बस लड़कियों के ज़िम्मे.... मुझे इस सबसे चिढ़ थी। मेरे अंदर इसके विरोध में गुबार भरता गया था और मैंने ठान लिया था कि मौका पाते ही मैं इस सबके खिलाफ कलम थामूंगी। उसी का नतीजा है 'मुझे जन्म दो मां' । मुझे खुशी है कि मैं अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को सामाजिक संदर्भ देकर सहयोग, साहचर्य और सहकारिता की वैकल्पिक नारी संस्कृति लिख सकी और नारी विषयक वैचारिक अवरोधों के खिलाफ़ हल्ला बोल सकी।
सुमीता : आपने एकाकी जीवन जिया है किन्तु आपके पात्र प्रेम के समंदर में गोते लगाते रहे....कैसे आपने उन प्रेम भरे खूबसूरत लम्हों को अपने पात्रों में बांटा या जिया ?
संतोष : बहुत खूबसूरत सवाल है आपका सुमीता जी। एकाकी जीवन जीते हुए इंसान इस समूची कायनात को बड़ी गहराई से परखता है। चूंकि ईश्वर के द्वारा पारिवारिक माहौल से मैं महफ़ूज़ कर दी गई इसलिए सबसे पहले तो मैंने उसी को परखा तो पाया कि वह तो अपनी रची सृष्टि के कण-कण में मौजूद है। प्रकृति हमें प्रेम करना ही तो सिखाती है जैसे चकोर करता है चांद से, जैसे हवा करती है पेड़ों की शाखों-पत्तियों से, जैसे भंवरा करता है फूल से, परवाना शमा से, समंदर किनारों से....वह बार-बार भेंटता है और भेंटकर खुशी की गर्जना करता है। लहरें चांद को पाने की कोशिश में ज्वार बन ऊंची-ऊंची उठती हैं.... यह क्या प्यार नहीं ? मैंने अपने हर लम्हे को अपने पात्रों के संग जिया है। जब मेरी कहानी का नायक नायिका के बाल सहलाता है तो मैं सिहर उठती हूं। मेरे उपन्यास 'मालवगढ़ की मालविका' की नायिका जब सूनी वीरान हवेली में भटकती है, जार जार रोती है तो यकीन मानिये मैं हफ़्तों डिस्टर्ब रही थी। मेरा लेखन पहले मुझे टकोरता है फिर पाठकों तक पहुंचता है।
सुमीता : संतोष जी सच कहा आपने जिसने प्रकृति के प्रेम को समझा वही प्रेम को महसूस भी कर सकता है। आपको कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा गया है लेकिन आपकी सादगी और सरलता के सामने ये बौने और निरर्थक प्रतीत होते हैं? आज भी आप उतनी ही सक्रिय हैं पुरस्कारों का सिलसिला अब भी जारी है। आपको इतनी उर्जा कैसे और कहां से मिलती है?
संतोष : मुझे महाराष्ट्र के गवर्नर एस.एम.कृष्णा के हाथों राजभवन में सन २००४ में लाईफ़ टाइम अचीव्हमेंट अवार्ड से नवाज़ा गया था जो मुझे भारत के विभिन्न प्रदेशों की आदिवासी और बंजारा जनजाति की महिलाओं के हालात जानने समझने और लिखने पर मिला था। इनका जिक्र मैंने 'मुझे जन्म दो मां' में विस्तार पूर्वक किया है। इन बीहड़ आदिवासी इलाकों में जाने के लिए मुझे महाराष्ट्र सरकार,उड़ीसा सरकार तथा अंडमान निकोबार सरकार ने हर तरह की सुविधाएं मुहैय्या कराईं। इसके अलावा मिले कई राष्ट्रीय पुरस्कारों ने जहां एक ओर मुझे खुशी दी वहीं दूसरी ओर इस बात का एहसास भी कराया कि मेरे लेखन का जो मूल्यांकन हुआ है उसे मुझे आगे भी बरकरार रखना है। मुझे और अधिक सार्थक और प्रौढ़ लेखन करते रहना है ताकि ऊंचाईयों पर मेरी स्थिति कायम रहे और यही मेरी ऊर्जा की वजह है। मेरे लिए प्रतिदिन थोड़ा समय लेखन को देना उतना ही जरूरी है जितना ज़रूरी शरीर के लिए भोजन है।
सुमीता : आप हेमंत फाउंडेशन की अध्यक्ष भी हैं और आपकी संस्था पिछ्ले १२ वर्षों से देश के विभिन्न क्षेत्रों से कई कवि एवं साहित्यकारों को सम्मानित कर चुकी है। यह आपकी निष्पक्ष पारदर्शिता को दर्शाता है,जबकि साहित्यिक राजनिती में अक्सर जोड़-तोड़ के कयास लगाये जाते हैं। इस पर आपकी क्या राय है?
संतोष : यह सही है कि पुरस्कारों को लेकर कुछ संस्थाओं ने अरूचिकर माहौल पैदा कर दिया है। कई पुरस्कार तो प्रविष्टियों के साथ रूपिये भी मंगवाते हैं, कई पुरस्कार खरीदे-बेचे जाते हैं......बाज़ारवाद रचना जैसे शुद्ध साहित्यिक, सृजनात्मक कर्म में भी किये है। 'हेमंत फाउंडेशन' ऐसे बाज़ारवाद से परे है। न तो हमारी संस्था पुरस्कारों के लिए प्रविष्टियां आमंत्रित करती है और न कभी निर्णायक मंडल का नाम ही घोषित करती है। यह गोपनीयता हमारी संस्था की पहली शर्त है। इसीलिए 'विजय वर्मा कथा सम्मान' तथा 'हेमंत स्मृति कविता सम्मान' अपनी पारदर्शिता के लिए प्रसिद्ध है।
सुमीता : आपकी उपलब्धि एक अंतरराष्ट्रीय लेखिका के रूप में है। यहां तक पहुंचने के लिए आपको कौन-कौन सी रुकावटें झेलनी पड़ी?
संतोष : नहीं सुमीता जी, कोई रुकावट नहीं झेलनी पड़ीं। हुआ यूं कि सन २००२ में नई दिल्ली में महिला पत्रकारों का राष्ट्रीय सम्मेलन सैंट्रल सोशल वेल्फ़ेयर बोर्ड तथा वुमेन नेटवर्क लिमिटेड की ओर से हुआ था जिसमें महाराष्ट्र की ओर से मैंने प्रतिनिधित्व किया था। दो दिन के इस राष्ट्रीय सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय पत्रकार मित्रता संघ की ओर से सदस्यता आफ़र हुई। यह संस्था भारत सरकार की मदद से विदेशों में हिन्दी के लिए कार्य करती है। तब से मैं जर्मनी, इंग्लैंड, इटली, रोम, हालैंड, स्काटलैंड, आस्ट्रिया,बेल्जियम,फ्रांस समेत चौदह देशों की यात्रा कर चुकी हूं। इस वर्ष मास्को जाना है। मास्को का एक प्रोजेक्ट भी पूरा करने में जुटी हूं।
सुमीता : विदेश यात्रा के दौरान कोई ऐसा वाकया जिसने आपको विचलित किया हो या रोमांचित किया हो? बताएं ।
संतोष : गांधी जी ने कहा था अगर देश को समझना है, विश्व को समझना है तो उसे नज़दीक से जाकर देखो। घुमक्कड़ी मेरा स्वभाव है। कंधे से लटकता बैग,बैग में गंतव्य की जानकारी, नक्शा, कैमरा और मोबाइल....बस, इस जीवन शैली में न तो कभी उम्र ने रुकावट डाली और न सहयात्री ने। मैंने विभिन्न देशों के प्रकृति, वहां के लोगों का रहन सहन, खानपान, भाषा में खुद डुबोया है। अक्सर लोग मनोरंजन के लिए यात्रा करते हैं लेकिन मैं कुछ नया सीखने के लिए यात्रा करती हूं। मेरे लिए प्रकृति सबसे बड़ा शिक्षक है। मेरी पहली विदेश यात्रा की उड़ान जर्मनी के लिए थी। मेरे साथ १८ प्रतिनिधि सदस्यों का दल था। जर्मनी के फ़्रेंकफ़र्ट शहर के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे में इमीग्रेशन के दौरान जर्मन अधिकारी ने अंग्रेज़ी में पूछा-'' आप लेखिका हैं? इंडिया से? किस विषय पर लिखती हैं? यहां आपको किसी तरह की मदद चाहिए तो यह रहा मेरा कार्ड ।'' मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी थी। अपने लेखिका होने पर गर्व तो हुआ ही साथ ही यह एहसास भी कि जर्मनी में लेखकों की कितनी कद्र है फिर चाहे वह किसी भी देश का क्यों न हो। जर्मनी ने संस्कृत भाषा को विश्व मंच पर लाने में अहम भूमिका निबाही है। अक्टूबर २०१० में मैं जापान गई थी। सुना था जापानियों के देश प्रेम का किस्सा और अभी-अभी आये सूनामी संकट में पूरे विश्व ने देखा जापान का आत्मसम्मान, सहिष्णुता, देशप्रेम । किसी भी देश से कोई मदद लिए बिना इस विभिषिका को अपने बलबूते पर निपटने में लगा है जापान। मैंने जापाने गांवों की यात्रा की, महानगरों की यात्रा की तो पाया कि जापानी अपने देश अपनी भाषा से बेहद लगाव रखते हैं। वे किसी अन्य भाषा में बात करना पसंद नहीं करते। उन्होंने अंग्रेज़ी का सारी शब्द ही अपनाया है जिसका इस्तेमाल वे टूरिस्टों के लिए करते हैं। वहां नीली शर्ट और सफेद शर्ट पहने कई नौजवान दर्शनीय स्थलों, माल, मंदिर, बौद्ध मठ, चर्च और अन्य दर्शनीय स्थलों में मिल जाएंगे जिनकी शर्ट की दाहिनी आस्तीन पर इंग्लिश लिखा है। ऐसे लोग बिना कोई मेहनताना वसूले टूरिस्टों की मदद करते हैं। हिरोशिमा नागासाकी को एक स्मृति स्थल बनाने में जापानियों ने दिन रात मेहनत की थी। उन्होंने सालों तक एक भी छुट्टी नहीं ली थी कि कहीं देश की प्रगति रुक न जाए। मैं जापानियों के इस जज़्बे को सलाम करती हूं।
सुमीता : बल्गारिया से आई छात्रा डोरा जो उड़ीसा की आदिवासी महिलाओं पर शोध कर रही थी और महाराष्ट्र सरकार ने आपको उसका को-आर्डिनेटर नियुक्त किया था... बड़े रोचक अनुभव रहे होंगे आपके ?
संतोष : डोरा बल्गारिया निवासी होकर भी ऐसी हिन्दी बोलती थी कि मैं हैरत में पड़ जाती थी। उसका साथी आरसोव भी बेहतरीन हिन्दी का विद्वान था। डोरा के साथ हमने उड़ीसा के जिन आदिवासी क्षेत्रों का दौरा किया वे आज की दुनिया के लगते ही नहीं, भूत, प्रेत ,डायन,चुड़ैल की मान्यता वाले इन गांवों में आज भी बाटा पद्वति है। चावल दो बदले में शक्कर गुड़ लो। रुपया चलता ही नहीं है वहां। मेरे लिए तो उतने दिन जादुई दिन की तरह बीते । लगा जैसे एक अलग ही दुनिया में आ गई हूं। एक ऐसी दुनिया जहां शहरों की राजनीति का जहर नहीं फैल पाया है। सही अर्थों में प्रकृति पुत्र हैं ये।
सुमीता : ज़िंदगी को आप किस नज़रिये से देखती हैं?
संतोष : मैं मानती हूं कि ज़िंदगी हमें बस एक बार मिलती है अत: इसकी कद्र करना आना चाहिए। सुख दुख तो दाएं-बांए चलते हैं। जीवन-मरण हमारे हाथ में नहीं तब क्यों ज़िंदगी को दोष दिया जाये। मैंने हेमंत को खोया, पति खोया ......ज़िंदगी रुक तो नहीं गई । हां वक्त लगा इस सदमे की सच्चाई को आत्मसात करने में। पर अब मैं संभल गई हूं और हर हाल में खुश रहती हूं। ज़िंदगी को उत्सव की तरह जीना और उस पर विश्वास करना मेरा स्वभाव बन गया है। सारे आंसू मैंने हेमंत की मृत्यु पर बहा लिए...अब मेरा आंसुओं का कोष खाली है लेकिन मैंने खुद को पत्थर होने से भी रोका है। मैं मानती हूं कि ईश्वर से जितना जिसका आंचल है,उतनी ही सौगात मिलती है वह भी वक्त से पहले नहीं और किस्मत से अधिक नहीं।
सुमीता : आपको गद्य एवं पद्य दोनों विधा में महारत हासिल है। सुना है आजकल आप गज़ले भी लिख रही हैं। आपके ही एक शेर के साथ उत्तर चाहूंगी ।
संतोष : सदाएं मौजों की आती रहीं मेरी जानिब, समंदरों का कहीं भी कोई पता ही न था॥
सचमुच लेखक की कल्पना कहां-कहां पहुंच जाती है। स्कूल के दिनों में चन्द्रकान्ता संतति पढ़ने का जुनून चढ़ा...इस कदर कि बाबूजी नाराज़ न हों तो लिहाफ़ के अंदर टार्च की रोशनी में पढ़ती थी। फिर बकायदा कहानियां लिखने लगी। कविताएं संग-संग कागज़ पर उतरती रहीं। छपीं और सराही गईं। जनवरी २०११ में मुझे बहुभाषी कवि सम्मेलन में गोवा आमंत्रित किया गया। वहां मैंने एक गज़ल पढ़ी और यकीन मानिए कि उस गज़ल की बार-बार फरमाइश हुई। फिर पूना से रफ़ीक ज़ाफ़र साहब का फोन आया और मुम्बई में महिला दिवस के अवसर पर 'असवाक' उर्दू पत्रिका के लोकार्पण के दौरान रखे गये मुशायरे में मुझे आमंत्रित किया गया। बस तब से गज़ल विधा में मेरा पदार्पण हुआ। गज़लें लिखने का जुनून कुछ इस कदर है कि सिरहाने डायरी और कलम रख कर सोती हूं। नींद को बुलाना पड़ता है वह तो नहीं आती गज़ल आ धमकती है और मोबाइल की रोशनी में डायरी में उतरती चली जाती है। धीरे-धीरे उर्दू साहित्यकारों के बीच भी मैं पहचानी जाने लगी हूं। हेमंत फाउंडेशन ने एक हिन्दी उर्दू मंच भी स्थापित कर लिया है। जिसके अंतर्गत मुशायरे,काव्य गोष्ठी,सेमिनार वगैरह आयोजित किए जाएंगे। उर्दू के मशहूर लेखक डा.अब्दुल सत्तार दलवी का इस मंच से जुड़ना हमारी कामयाबी है।
सुमीता : आपने नाटकों में भी काम किया है। क्या अब भी आपके अंदर का पात्र कभी मचलता है नाट्यमंचन के लिए?
संतोष : कालेज के दिनों में कई नाटकों में भाग लिया था जिनमें मैं विभिन्न किरदारों को लेकर मंच पर उतरी, सराहना भी मिली। उन्हीं दिनों पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र के नाटक 'कृष्णायन' पर हमने एक नृत्य नाटिका तैयार की। जिसमें मानिनी राधा का रोल मैंने निभाया, यह भी कालेज स्तर पर सालाना जलसे में हुआ जिसमें विशेष अतिथि के रूप में फिल्म अभिनेत्री बीना राय आई थीं। अब भी मेरे अंदर का कलाकार कुलबुलाता है जबकि समय की आंधी उसे खत्म कर सकती थी पर मैं मानती हूं कि कला कभी खत्म नहीं होती....मौका मिले तो निश्चय ही नाट्य मंचन करुंगी। अभिनय और नृत्य मेरी कमजोरी है।
सुमीता : गुस्ताखी माफ, संतोष जी अब मैं आपके पाठकों की प्रतिनिधी होने के नाते आपके कुछ अंतरंग पहलुओं के दस्तावेजों में से कुछ पन्ने पलटना चाहूंगी । आपके एकाकी जीवन में आये वे लम्हें जब किसी ने आपके दिल में दस्तक दी होगी । आपको भी किसी से प्यार तो हुआ ही होगा, कृपया हमसे शेयर करें?
संतोष : निश्चय ही पाठकों को यह जानने का हक है। वैसे भी मेरी ज़िंदगी एक खुली किताब है। हालांकि ज़िंदगी का सफ़र तन्हा है पर - प्यार में जब तलक नहीं डूबे, दिल किसी काम का नहीं रहता।
सुमीता जी, जवानी में विद्रोही तेवरों की वजह से दिल कभी किसी के लिए नहीं मचला.....माता-पिता की खुशी के लिए शादी की वेदी में ज़िंदगी के महत्वपूर्ण साल शहीद हो गये। और फिर सब कुछ खत्म हो गया। मैं एक शापग्रस्त की तरह जब अपने शाप से मुक्त हुई तो पाया कि अब भी मेरे अंदर जज़्बातों की गठरी ज्यों की त्यों मौजूद है। प्रेम का प्याला लबरेज़ है और छ्लकने आतुर है। बिना प्रेम किये मर जाने से ज़्यादा दुखद कुछ और नहीं हो सकता। लेकिन इससे भी ज़्यादा तकलीफ़ की बात यह है कि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे यह बताए बिना ही दुनिया से विदा हो जाएं कि हम उससे प्रेम करते हैं । इसलिए साहस बटोर रही हूं । और खुद को उस गहराई,
ऊंचाई और विस्तार तक ले जा रही हूं ...उन हदों तक जहां केवल प्रेम ही पहुंच सकता है।
सुमीता : उस शख्स का नाम पूछ कर अब हम अपनी हद नहीं तोड़ेंगे संतोष जी, आपका शुक्रिया आपने अपना कीमती वक्त 'शब्द' और अपने पाठकों के नाम किया इसके लिए हम आपके बहुत-बहुत आभारी हैं ।
धन्यवाद ।
सुमीता केशवा
2204, क्रिमसन टावर
आकुर्ली रोड, लोखंडवाला
कांदिवली [ईस्ट]
मुम्बई- 101
फ़ो-29663666/ mo- 9773555567

Monday, June 13, 2011

क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........

ए अम्मा,ओ बापू,दीदी और भैया


आपका ही मुन्ना या बबली था

पशु नहीं जन्मा था परिवार में

आपके ही दिल का चुभता सा टुकड़ा हूं

क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........

कोख की धरती पर आपने ही रोपा था

शुक्र और रज से उपजे इस बिरवे को

नौ माह जीवन सत्व चूसा तुमसे माई

फलता भी पर कटी गर्भनाल,जड़ से उखड़ा हूं

क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........

लज्जा का विषय क्यों हूं अम्मा मेरी?

अंधा,बहरा या मनोरोगी तो नहीं था मैं

सारे स्वीकार हैं परिवार समाज में सहज

मैं ही बस ममतामय गोद से बिछुड़ा हूं

क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........

सबके लिए मानव अधिकार हैं दुनिया में

जाति,धर्म,भाषा,क्षेत्र के पंख लिए आप

उड़ते हैं सब कानून के आसमान पर

फिर मैं ही क्यों पंखहीन बेड़ी में जकड़ा हूं

क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........

प्यार है दुलार है सुखी सब संसार है

चाचा,मामा,मौसा जैसे ढेरों रिश्ते हैं

ममता,स्नेह,अनुराग और आसक्ति पर

मैं जैसे एक थोपा हुआ झगड़ा हूं

क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........

दूध से नहाए सब उजले चरित्रवान

साफ स्वच्छ ,निर्लिप्त हर कलंक से

हर सांस पाप कर कर भी सुधरे हैं

ठुकराया दुरदुराया बस मैं ही बिगड़ा हूं

क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........

स्टीफ़न हाकिंग पर गर्व है सबको

चल बोल नहीं सकता,साइंटिस्ट है और मैं?

सभ्य समाज के राजसी वस्त्रों पर

इन्साननुमा दिखने वाला एक चिथड़ा हूं

क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........

लोग मिले समाज बना पीढियां बढ़ चलीं

मैं घाट का पत्थर ठहरा प्रवाहहीन पददलित

बस्तियां बस गईं जनसंख्या विस्फोट हुआ

आप सब आबाद हैं बस मैं ही एक उजड़ा हूं

क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........

अर्धनारीश्वर भी भगवान का रूप मान्य है

हाथी बंदर बैल सब देवतुल्य पूज्य हैं

पेड़ पौधे पत्थर नदी नाले कीड़े तक भी ;

मैं तो मानव होकर भी सबसे पिछड़ा हूं

क्योंकि मैं हिजड़ा हूं..........

वो शब्द है...

कालक्रम में शाश्वत जो गूंज रहा वो शब्द है...

सनातन पहेलियां जो बूझ रहा वो शब्द है...

हृदय में जो दब गया था

कंठ में जो रुंध गया था

अचानक सशस्त्र हो कर चल पड़ा वो शब्द है....

वो शब्द है

वो शब्द है

भिंचे हुए जबड़ों और तनी हुई मुट्ठियों से

झाग के संग ओंठों से उबल पड़ा वो शब्द है

वो शब्द है

वो शब्द है

चीखता, चिल्लाता, गुर्राता, हुंकारता,

गरजता, फुंफकारता सम्हल खड़ा वो शब्द है...

वो शब्द है

वो शब्द है

नेत्र की शिराओं में रक्त से हस्ताक्षर कर

एक बूंद अश्रु जो निकल पड़ा वो शब्द है

वो शब्द है

वो शब्द है

धरा को जो रौंद कर, जो गगन में कौंध क

रुधिर की ले लालिमा सजल खड़ा वो शब्द है

वो शब्द है

वो शब्द है

वो शब्द है

वो शब्द है................

कालक्रम में शाश्वत जो गूंज रहा वो शब्द है...

सनातन पहेलियां जो बूझ रहा वो शब्द है...

पत्रकारिता का यथार्थ

खोपड़ी की हंड़िया में सवाल की दाल है

उत्तरों की छौंक नहीं व्यर्थ का उबाल है

कलम की करछुल का भाल में भूचाल है

पेंदी की रगड़ से हाल ये बेहाल है

ओंठो के बीच दबी बीड़ी की नाल है

आग फूंक धुंआ खींच राख सा मलाल है ,

पुष्टि नहीं तुष्टि नहीं जाल है जंजाल है

स्वप्निल यथार्थ में कंगाल ये कंकाल है ,

रौंद दिए सत्य के हाथ में कुछ बाल है

बालों की खाल पर उठ रहे बवाल हैं ,

पत्र-पत्र यत्र-तत्र पत्रकार ताल है

सत्यमेव जयते से इनका रक्त लाल है ।

साक्षात्कार: स्त्री विमर्श और सामाजिक सरोकार

{चर्चित लेखिका संतोष श्रीवास्तव से कुमारेन्द्र सिंह सेंगर(लेखक, संपादक - स्पंदन त्रैमासिक) की स्त्री विमर्श के मुद्दों पर बातचीत}
संतोष जी ई स्त्री विमर्श पर एक पुस्तक "सामयिक प्रकाशन” से अभी-अभी प्रकाशित हुई है, "मुझे जन्म दो मां"। पिछले दस वर्षों से समरलोक पत्रिका में ’अंगना’ नामक स्तम्भ निकल रहा है जो स्त्री विमर्श पर आधारित रहता है। यह स्तम्भ बहुत अधिक लोकप्रिय रहा है। यह साक्षात्कार भी मैंने इसी विषय को आधार बनाकर लिया है।
प्र. संतोष जी, आज मैं आपसे केवल स्त्री विमर्श पर ही चर्चा करूंगा क्योंकि अब यह विमर्श गहराता जा रहा है जबकि इस तर्क से मैं जहां तक पाता हूं, कोई अंतर नहीं आया है। स्त्री या तो वहीं खड़ी है जहां वह पहले थी या उसने अपनी राह खुद बनाई है। आपने किस बात से प्रेरित होकर ’अंगना’ की शुरूआत करी और इतनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी?
. मेरा परिवार माता-पिता, भाई-बहन प्रगतिशील विचारों के थे। समाज में जब भी कुछ ऐसा घटित होता जो औरत के खिलाफ़ होता तो उसकी चर्चा कई-कई दिनों तक हमारे रात्रि भोजन के दौरान होती रहती। उन चर्चाओं में वक्त ने मेरे अनुभव भी जोड़ दिये। बहुत कुछ मुझ पर गुजरा, काफ़ी कुछ समाज से उठाया.... ऐसा थर्रा देने वाला सच जिसे वर्षों पहले मैंने जाना ही नहीं था.... आज सोचती हूं तो लगता है जैसे जैसे स्त्री की समस्याएं सामने आती हैं वे और बढ़ती जाती हैं सुरसा के मुंह की तरह.... अब वे विश्वव्यापी हो गयी हैं और हमें सोचने पर मजबूर करती हैं।
प्र. स्त्री विमर्श शब्द विवाद का विषय रहा है। आपके विचार से साहित्य में, समाज में ऐसी कोई अवधारणा है भी या फिर यह स्त्री रचनाकारों के मन की कल्पनामात्र है?
. समाज में हर वो वस्तु या धारणा विवाद का विषय रहती है जिसमें मतैक्य नहीं होता। स्त्री विमर्श को लेकर पिछले कुछ सालों से साहित्य में जो हलचल मची हुई है उसने विचारकों को, साहित्यकारों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या सचमुच स्त्री को लेकर विमर्श जैसी किसी अवधारणा की जरूरत है?यह बहुत संवेदनशील बात है जो प्रतिपल-प्रतिक्षण समाज में दिखाई देती है। यह कोरी कल्पना नहीं है और न ही केवल स्त्री रचनाकारों तक ही सीमित है। रामायण, महाभारत में सीता, अहिल्या और द्रौपदी जैसी पुरुषों द्वारा प्रताड़ित नारियों का राम और कृष्ण ने चमत्कारी ढंग से उद्धार किया। स्त्री के प्रति उनका ऐसा दृष्टिकोण, उनकी मर्यादाओं की रक्षा समकालीन स्त्री विमर्श के लिये सोचने का मुद्दा है। बहुत पहले मार्क्स के समकालीन एंगेल्स ने कहा था कि ’उद्यमों में समूचे महिला समुदाय का प्रवेश महिला-मुक्ति की पहली बुनियाद है।’ समाज में ऐसा बहुत कुछ संभव हुआ है और बहुत कुछ होने जा रहा है।
प्र. साहित्य में स्त्री विमर्श का उद्देश्य क्या रहा है? क्या इससे समाज में स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में सार्थक, सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुए हैं या फिर देह की आज़ादी, परिवार से आज़ादी ही स्त्री विमर्श का मूल उद्देश्य रहे हैं?
. साहित्य में स्त्री विमर्श का उद्देश्य तो अभी तक मैं समझ नहीं पायी हूं। अगर स्त्री विमर्श के तर्कों से ही महिला सशक्त हो जाती तो अब तक पूरा समाज ही बदल जाता। स्त्री की दशा तो जस का तस ही है। आप पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहो लेख, करते रहो नारेबाजी पर इस सबसे सदियों से जड़ जमाए स्थितियां तो नहीं बदल जाती। नारी मुक्ति के कानून बस कागज़ों पर ही बनते हैं। स्त्री आज भी घरेलू गुलामी की सीमा तक पार नहीं कर पायी है। घर के तमाम काम और जिम्मेदारियां बड़ी सफाई से उसकी ही गांठ में बांध दी गयी हैं और वह इन कामों को करती घरेलू चाकरी में खुद को स्वाहा किये जा रही है। देह की आज़ादी से औरत क्या हासिल कर लेगी? परिवार की आज़ादी से उसे कौन सा सुकून मिल जाएगा? इन दोनों प्रकार की आज़ादी में टूटेगी स्त्री ही। देह की अपनी अहमियत है और परिवार की अपनी। दोनो अपनी-अपनी जगह बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। समाज का ढांचा स्त्री-पुरुष के संग साथ से ही खड़ा होता है। समाज से देश विकसित होता है। आज चूंकि भारत आर्थिक पिछड़ेपन की त्रासदी से जुज़र रहा है ऐसी हालत में स्त्री पुरुष दोनों को अपनी-अपनी सोच खंगालनी होगी। निज से ऊपर उठ कर सोचना होगा। असली सशक्तिकरण वही है।
प्र. महिला द्वारा महिला का शोषण जो समाज में व्यापक रूप में फैला हुआ है स्त्री विमर्श के नाम पर एक शिक्षित नारी भी इसका विरोध क्यों नहीं करती? कहीं ऐसा तो नहीं कि स्त्री विमर्श की अवधारणा पुरुष विरोध पर ही कायम है??
. जहां तक स्त्री विमर्श की अवधारणा पुरुष विरोध पर कायम है, इस बात को मैं एक संतुलित वक्तव्य की संग्या नहीं दूंगी। अगर स्त्री का एक वर्ग ऐसा है जो पुरुष विरोध को ही अपना लक्ष्य मानता है तो एक वर्ग ऐसा भी है जिसने पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर चलने में ही सार्थकता पायी है। पुरुष को भी स्त्री को अपने साथ बराबरी से चलने को ’विरोध’ नहीं कहना चाहिये... आखिर वो क्यों चाहता है कि स्त्री उसके कदमों के पीछे छूट गए निशानों पर ही चले? महिला द्वारा महिला का शोषण ठीक वैसा ही है जैसे एक शक्तिशाली पुरुष द्वारा कमज़ोर पुरुष का शोषण। इसे स्त्री या पुरुष में बांटना मूलभूत भूल है। शोषण ताकत के साथ निहित है। यदि बहू ताकतवर है(यहां ताकत से मतलब शारीरिक ताकत नहीं बल्कि धन, पद और रुतबे की ताकत है) तो सास-ससुर को घर से निकाल देती है। कितने ही ऐसे पुरुष हैं जो पत्नी पीड़ित हैं। हमारी सोच का नज़रिया सिर्फ़ महिला तक ही सीमित नहीं होना चाहिये। ये सोचना गलत है कि शिक्षित नारी ऐसे शोषण का विरोध नहीं करती। यहा मात्र भ्रान्ति है। कई ऐसे उदाहरण हैं जहां सास के द्वारा बहू को प्रताड़ित किये जाने पर बेटी ने अपनी मां का विरोध किया है। अगर हम वैसे उदाहरणों को देखते हैं तो ऐसे उदाहरणों को क्यों नहीं सामने लाते? हम खुद ही निगेटिव उदाहरणों को केन्द्र में लाकर पाजिटिव उदाहरणों को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं। जो इकतरफा माना गया विचार कहलाएगा।
प्र. साहित्य में स्त्री पुरुष दोनो का ही हस्तक्षेप है। स्त्री को केन्द्र में रख कर दोनो ने ही अपनी कलम चलाई है। स्त्री विमर्श और सामाजिम सरोकारों के संदर्भ में किसके लेखन को आप प्रभावी और संवेदनशील स्वीकारती हैं?
.यह कहना बड़ा कठिन है क्योंकि न तो लेख की प्रत्येक रचना अच्छी होती है और न ही उस पर वैसी कोई धारणा बनाई जा सकती है। कभी-कभी लेखक या लेखिका ऐसी प्रभावी रचना लिख डालते हैं जो सालोंसाल मन को मथती रहती है। स्त्री को केन्द्र में रखकर लिखी ऊषा प्रियम्वदा की "रुकोगी नहीं राधिका", नासिरा शर्मा की "शाल्मली", मृदुला गर्ग की "कठगुलाब", इन्द्र बसावड़ा की "शोभा", "घर की राह" किसी क्रान्ति से कम नहीं हैं। इन उपन्यासों ने गहरे छुआ है। स्त्री विमर्श और सामाजिक सरोकारों के संदर्भ में लेखक और लेखिकाओं के द्वारा काफ़ी कुछ लिखा जा रहा है। कोई प्रभावी होता है कोई नहीं। असल में स्त्री की तमाम घरेलू दुविधाओं से लेकर जी-२० सम्मेलन तक का जो पूरा परिदृश्य है उसी के बीच उसके जीवन की समस्याओं के साथ भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद और राजनैतिक पहलुओं को भी जोड़ कर देखना चाहिये।
प्र. ऐसा कहा जाता है कि शिक्षा स्त्री सशक्तिकरण का प्रमुख सोपान है फिर भी ज्यादातर स्त्रियां परम्परागत स्त्री छवि से बाहर नहीं आ सकी हैं। शिक्षित स्त्री काभी शारीरिक, मानसिक शोषण(स्त्री व पुरुष दोनो के द्वारा) हो रहा है, इसके मूल में क्या अंतर्निहित है?
. यह बहुत कड़वी सच्चाई है कि पढ़ी-लिखी स्त्री का भी शारीरिक मानसिक शोषण हो रहा है। जमाना तेजी से बदला है। बाज़ारवाद ने जिस ढंग से जीवन के हर क्षेत्र में पांव पसारे हैं वह शोचनीय है। उसने एक चकाचौंध भरी दुनिया का निर्माण करा है। जिसमें वे कुछ भी करने को तैयार हैं। यह काम यदि स्त्री के द्वारा होता है जिसमें पुरुष शोषक है और स्त्री शोषित है तो उस पर सबकी नजरें उठ जाती हैं लेकिन यदि पुरुष शोषक भी है और शोषित भी तो उस पर तवज्जो नहीं दी जाती। कई बार स्त्री को परिस्थितिवश शोषण के लिये झुकना पड़ता है। पति की मृत्यु के बाद या पिता की मृत्यु के बाद परिवार की गाड़ी खींचने के लिये.... तलाक के बाद या पिता की मृत्यु या तलाकशुदा माता के लिये वह मजबूर हो जाती है।एक बड़ी जिम्मेदारी ढोने में वह खुद को खत्म कर लेती है।
ज्यादातर शिक्षित स्त्रियां परम्परागत स्त्री छवि से बाहर नहीं आ सकी हैं। शिक्षा ने उन्हें समाज का सामना करने का हौसला तो दिया है लेकिन उनकी मानसिकता नहीं बदली है। आज भी उनमें यह भय कुंडली मारे बैठा है कि यदि पति जीवित न रहा, यदि पति ने तलाक दे दिया, यदि वे कुंवारी ही मां बन गयी तो वे क्या करेंगी? समाज उन्हें जीने देगा?? शिक्षा ने स्त्री को तो सशक्त बनाया पर समाज नहीं बदला। ऐसे में वे कब तक खुद को बदलती टिक पाएंगी? धर्म, पुराणों और ग्रन्थों ने भी औरत की नैतिकता, शुचिता को तमाम उलझनों के मकड़जाल में फंसा दिया है। नतीजा, पूरे समाज की मानसिकता रूढ़ियों में जकड़ गयी है और स्त्री ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी खो दी, और तो और महिला मुक्ति का ढिंढोरा पीटती कई स्त्रियों की स्त्रियों के द्वारा चलायी जा रही संस्थाएं भी बाकायदा आधार स्तंभ बन कर इन रूढियों को खत्म न होने देने के प्रयास में तत्पर हैं।
प्र. समाज में स्त्रियों को विधायिका एवं अन्य दूसरे क्षेत्रों में या तो आरक्षण देने की चर्चा है या फिर आरक्षण दिया जा चुका है। आप इस बारे में क्या कहेंगी कि समाज में स्त्रियों की बदलती स्थिति से साहित्य प्रभावित हुआ है अथवा साहित्य ने समाज में महिलाओं की स्थिति को प्रभावित किया है?
. जब आरक्षण का मुद्दा नहीं उठा था तब भी स्त्री विधायिकाएं थी और आज जब उठा है तब भी विधायिकाएं हैं। उनकी संख्या में कमी या बढोत्तरी नहीं हुई है। स्त्रियों के लिये राजनीति में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण उठाने का मुद्दा अभी तक सुनियोजित तरीके से स्थगित किया जाता रहा है और इसके पीछे भी राजनीति ही है। जहां तक साहित्य के प्रभावित होने का प्रश्न है तो देश भर की साहित्यिक पत्रिकाएं स्त्री मुद्दों पर बहस, चर्चाएं आयोजित करती हैं। स्त्री संदर्भ की कहानी, कविता, आलेख छापती हैं, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेषांक निकालती हैं और आधी दुनिया को बाकायदा नियमित स्तंभ में जगह देती हैं पर इससे कर्त्तव्य की इतिश्री नहीं होती है। कितना कुछ छप रहा है स्त्री विमर्श पर लेकिन फिर भी लगता है बात जहां की तहां खड़ी है। भूमंडलीकरण के इस युग में जड़ स्थितियों को बदलने में बहुत वक्त लगेगा।
साहित्य ने समाज में महिलाओं की स्थिति को कहां तक प्रभावित किया है यह बैठकर गहराई से सोचने का विषय है। साहित्य समाज का दर्पण है। वह एक ऐसा मंच है जो समाज को वस्तुस्थिति से परिचित कराता है। साहित्य ने इस विषय पर तह तक जाने की कोशिश तो की है।
प्र. साहित्य में नारी की जैसी छवि चित्रित की जा रही है उससे समाज में नारी के दो स्वरूपों का आधार निर्मित हुआ है। एक में सीता सावित्री जैसी महिलाओं को रखा जाता है और दूसरे में नारी छवि को "होमब्रेकर" के रूप में देखा जाता है। ऐसा क्यों है और सामाजिक सरोकारों के परिप्रेक्ष्य में आपको औरत का कौन सा स्वरूप ज्यादा सार्थक लगता है?
. सीत्रा सावित्री जैसी छवि तो साहित्य की संरचनाकाल से ही छित्रित होती रही है। आज उस छवि को पाठक नकार भी रहे हैं। उन्हें हारी हुई शोषिता, गलत के आगे समर्पित, रोती गिड़गिड़ाती स्त्री की कहानियां पसंद नहीं आतीं। सीत्रा सावित्री का विलोम शब्द "होमब्रेकर" नहीं है। कहीं भी स्त्री को सशक्त करने के लिये परिवार को तोड़ने की बात नहीं कही गयी है बल्कि परिवार तो जीवन की प्रथम और अनिवार्य इकाई है। फिर भी परिवार टूट रहे हैं तो इसके पीछे महिला का सशक्तिकरण नहीं है वल्कि जिन्दगी जीने का पूरा ढंचा बदल जाने की सोच है। बाज़ारवाद, भूमंडलीकरण स्त्री को मोहरा बनाकर किए गए उत्पादन, विश्व सौंदर्य प्रतियोगिता, माडलिंग, फ़िल्म, टेलीविज़न इन सबके लिये थोड़े-थोड़े जिम्मेदार हैं....क्योंकि इन क्षेत्रों में पारिवारिक नहीं बल्कि सभी जिम्मेदारियों से मुक्त स्त्री को ही प्राथमिकता दी जाती है। कुछ क्षेत्रों में से शादीशुदा शब्द ही शब्दकोष से निकाल दिया गया है। जहां तक सामाजिक सरोकारों के परिप्रेक्ष्य में औरत के पसंदीदा स्वरूप की बात है तो निश्चय ही खुले विचारों वाली, पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा एक पारिवारिक महिला का स्वरूप ही सार्थक है जिसकी सोच पुरुष विरोधी नहीं बल्कि पुरुष के कदमों से कदम मिला कर चलने की है।
प्र. आज की महिला में आत्मविश्वास पनपा है, वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र भी हुई है। स्त्री विमर्श के नाम पर इस प्रकार की पैरोकारी की जाती रही है कि पति-पत्नी के आपसी अथवा पारिवारिक विभेद होने की दशा में आर्थिक रूप से सक्षम स्त्री को अलग हो जाना चाहिये, सम्बन्ध विच्छेद कर लेने चाहिये। क्या इस तरह के विचार स्त्री-सशक्तिकरण की सफलता है अथवा सामाजिक सरोकारों/पारिवारिक ढांचे के विखण्डन के सूत्रधार हैं?
. निश्चय ही इस तरह के विचार दूषित विचार कहे जाएंगे। ऐसी मानसिकता चंद विद्वानों को स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में हाशिए पर ढकेलकर बढ़ना होगा। आर्थिक रूप से सक्षम स्त्री तो अपने परिवार को उच्च स्तर का सुख-सुविधाओं से भरा जीवन देने में खुद को धन्य मानती है। आर्थिक सक्षमता का मतलब यह तो नहीं कि वह परिवार को दरकिनार कर उद्दंड हो जाए और समझ ले कि अब वह स्वच्छंद है। जो जी में आए कर सकती है। स्वतंत्रता के नाम पर उच्छृंखलता को बढ़ावा देना घुमा फिरा कर स्त्री को वहीं का वहीं ला कर खड़ा कर देना है जहां से उसकी मुक्ति का मार्ग खुला था और सामाजिक नियम पुरुषों के लिये भी हैं, स्त्रियों के लिये भी। इन्हें जो भी तोड़ेगा वह दंड का भागीदार है। ऐसे विचार कभी भी स्त्री को सशक्त नहीं कर सकते।
प्र. साहित्य में स्त्री विमर्श के नाम पर नारी की यौन स्वच्छंद छवि, ’होमब्रेकर’ की छवि, उन्मुक्त छवि को अधिक एक्सपोज़र प्रदान किया गया। आपको नहीं लगता कि इससे सामाजिक सरोकारों और स्वयं नारी का स्वरूप प्रभावित हुआ है?
. चंद साहित्यिक पत्रिकाएं यदि स्त्री विमर्श के नाम पर नारी की यौन स्वच्छंद छवि, होमब्रेकर उन्मुक्त छवि को महिला सशक्तिकरण मानती हैं और यही सब छापती हैं तो ये उनकी बीमार मानसिकता है। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती देहवादी साजिशों से सावधान रहने की है। स्त्री विमर्श का अर्थ मात्र स्त्री शारीर और प्रेम के त्रिकोणों के चमत्कारी बयानों से न होकर आज के बाहरी और आन्तरिक दबावों को झेलती स्त्री का मन, उसकी सोच और उसके सम्पूर्ण अंतरंग और बहिरंग से है। मैं नहीं मानती कि इस तरह के एक्सपोज़र का असर सामाजिक सरोकारों पर पड़ा है या नारी के स्वरूप पर। जिन्हें परिवार तोड़ना है और अलग रहकर अपने लक्ष्य को पाना है वे तो पहले से ही ऐसा कर रही हैं। यही बात यौन स्वच्छंदता पर भी लागू होती है पर इससे पूरे समाज को इसी रंग में रंगा हुआ नहीं मान लेना जाए यह सही नहीं है। मर्यादित नारियां आज भी ८० प्रतिशत के आंकड़े पर हैं।
प्र. एक सामान्य पाठक की दृष्टि से स्त्री विमर्श के संदर्भ में आपको किस महिला उपन्यासकार ने सर्वाधिक प्रभावित किया है और किस महिला उपन्यासकार ने सामाजिक सरोकारों का सकारात्मक पोषण किया है?
. एक सामान्य पाठक की दृष्टि से स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में आजकल लेखिकाओं ने स्त्रियों की छवि को जरा अलग हटकर लिखा कि उसे स्त्री विमर्श का नाम दे दिया जाता है। पंजाबी लेखिकाओं में अमृता प्रीतम, अजीत कौर चुनौतीपूर्ण लेखन करती थीं। बहुत प्रभावित हूं मैं इनसे। पाकिस्तानी लेखिकाएं भी प्रभावित करती हैं। तहमीना दुर्रानी के "कुफ़्र" ने मुझे झंझोड़ा है और "मेरे आक़ा" ने मेरे विचारों को खलबला दिया है। क्या पुरुष की नजर में यही है औरत के मायने? कालेज के जमाने में मन्नू भंडारी की "आपका बंटी" बड़ी असरदार लगी थी। इस्मत चुग़ताई की "अगले जनम मोहे बिटिया न कीजे" और कृष्णा सोबती की "मित्रो मरजानी" में सामाजिक सरोकारों का सकारात्मक पहलू है।
प्र. साहित्य में चर्चित स्त्री विमर्श के द्वारा आप समाज में महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन देखती हैं? यह परिवर्तन किस वर्ग की महिलाओं में और किस प्रकार से हुआ है??
. साहित्य में चर्चित स्त्री विमर्श के द्वारा निम्नवर्ग की श्रमिक औरतों के बारे में काफी लिखा गया है और श्रमिक वर्ग को जब उनके कानूनी अधिकार समझाए गये तो उन्होंने उससे लाभ भी उठाया। मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की स्त्रियां श्रमिक वर्ग की स्त्रियों से भिन्न लेकिन समस्याओं के अलग दौर से गुजरती हैं। आर्थिक रूप से सम्पन्न होना उन समस्याओं को सुलझाने में कतई मदद नहीं करता जो सदियों से पुरुषवादी मानसिकता और पुरुषों के सामंती वर्चस्व ने उन पर थोपे हैं। बल्कि कई बार भौतिक सुविधाओं ने स्त्री के लिये अलग किस्म के पिंजड़ों में उन्हें जकड़ा है। स्त्री विमर्श के द्वारा न तो ये समस्याएं सुलझी हैं न ही इसमें कोई अंतर आया है।
[ यह साक्षात्कार कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने अपने शोध प्रबन्ध(पी.एच.डी.) में लिया है ]
 

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